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सितम्बर. 7, 2024, 2:12 बजे

यहां पर भगवान श्री गणेश 1700 वर्षो से है विराजमान ।

बीना :-  हर शुभकार्य में गणेश जी सदियों से पूजनीय बनकर समाज कल्याण के साक्षी रहे हैं। धर्मग्रंथों में प्रथम पूजनीय बताया है। बिना उनकी वंदना सनातनी परंपरा में कोई मंगल कार्य सम्पन्न नहीं होता

बेसे तो भगवान श्री गणेश की पूजा अनन्त काल से चली आरही है । भगवान श्री गणेश प्रथम पूज्यनीय है । बही आज हम बुंदेलखंड के जिस स्थल की बात कर रहे है वहां पर  गुप्तकाल से भगवान श्री गणेश की आराधना के प्रमाण मिलते है । आइये हम आप को ले चलते है उस इतिहासिक स्थल की ओर जहा पर भगवान गणेश 1700 वर्ष से विराजमान है ।

पत्थरों पर उकेरी गई कलाकारी मूर्तियों के रूप में आस्था के कालक्रम का कर रहीं गुणगान

- बुंदेलखंड का प्रवेश द्वार बीना नदी को गोद मे स्तिथि ऐतेहासिक स्थल ऐरण बर्बर आक्रांताओं के आक्रमण झेलकर भी प्राचीन समय में पूजे जाने वाले देवी-देवताओं की निशानियां बचाए बैठा है। इनमें आदिदेव भगवान शंकर और गौरी माता के पुत्र गणेश जी मूर्तियां भी आस्था का केंद्र बनी हुई हैं। ऐरण में कोई धर्मग्रंथ या पुराण तो मौजूद नहीं है लेकिन पत्थरों से भगवान बनी ये कलाकृतियां धार्मिक वैभव की गाथाएं गा रही हैं। यहां सत्ता और शासन बदलने के साथ यहां ईश्वर पूजा बदलती रही लेकिन गणेश पूजन का क्रम आज भी जारी है। आज हम आपको सत्रह सौ साल पुरानी  गणेश प्रतिमाओं पर जमी धूल हटाकर पूर्वजों की कुछ पूजापद्धति को आपके सामने रख रहे हैं।

    वर्तमान में हम जिस गणेश उत्सव में झूमते-गाते हैं वह लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के प्रयासों का परिणाम है। उनके द्वारा ही 1893 ईस्वी में महाराष्ट्र के पुणे से सार्वजनिक उत्सव की शुरुआत की गई। अंग्रेजी हुकूमत के पांव उखाड़ने में यह उत्सव मील का पत्थर साबित हुआ। पर सवाल यह उठता है कि इस उत्सव के पहले गणेश पूजन का स्वरूप क्या रहा होगा। इसके लिए हम धर्मग्रंथों का सहारा लेते हैं। हमारी पारम्परिक सामाजिक जीवनशैली भी इसकी गवाही देती है। फिर हमारे मंदिर और उनमें बैठी मूर्तियां भी यह कार्य बखूबी करती हैं। मूर्तियों से प्राचीन वैभव को  समझने का मुख्य केंद्र ऐरण स्थल है। भारतीय इतिहास के स्वर्णयुग कहलाने वाले गुप्तकाल के स्पष्ट नग्न आंखों से देखे जाने बाले प्रमाण मौजूद हैं। गुप्तवंशी शासक समुद्रगुप्त ने 350-60 ईस्वी में आमद दी। इसके बाद से ही यहां धर्म पताका लहलहाई। समुद्रगुप्त के समय ही गांव से डेढ़ किमी दूर बीना नदी के घाट पर महा शिलाप्रसाद(धार्मिक स्थल जिन्हें हम मंदिर कहने लगे) निर्माण किया गया। यहां उस काल में पूजे जाने वाले सभी प्रमुख देवताओं को स्थान दिया गया। यहां भगवान विष्णु, वराह, नरसिंह भगवान, भगवान राम, भगवान कृष्ण समेत अनेक देवताओं की मूर्तियां विराजमान हैं। पर हम फिलहाल इनकी चर्चा नहीं करेंगे। हमें तो प्रथम पूज्य गजानन की ही चर्चा करेंगे। यहां गुप्तकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल की विभिन्न रूपों की गणेश प्रतिमाएं हैं। इससे प्रमाणित होता है कि गुप्तकाल से भगवान गणेश की आराधना होती आई है। ग्रामीण आज भी इन मूर्तियों को पूजकर धर्मलाभ ले रहे हैं।

 

 

एक गुप्तकालीन मूर्ति खंडित अवस्था में है यह फिलहाल पुरास्थल के बीच आम के पेड़ के नीचे रखी है। यह नृत्य मुद्रा में। इसके दाएं हाथ में परशु(फरसा)दिख रहा है। हाथों में कुंडल, उदर में फूलमाला बनी है। केस विन्यास और एक दांत दिख रहा है। यह प्रमुख मंदिरों के साथ ही बनाई गई प्रतीत होती है। पशुवराह मूर्ति के ऊपर बने देवालय में गणेश जी विराजमान हैं। भगवान विष्णु मंदिर की द्वार शाखा पर भी छोटी सी गणेश प्रतिमा बनी है। इससे साबित होता है कि 1700 साल पहले भी गणेश जी का महत्व आज के ही बराबर था।

परवर्ती गुप्तकाल के अष्टभुजी गणेश
ऐरण से एक अष्टभुजी खंडित अवस्था की गणेश मूर्ति मिली है। यह सातवीं सदी में निर्मित बताई जाती है। इसमें गणेशजी का धड़ ही सुरक्षित है। हाथ और मस्तक खंडित है। नृत्य मुद्रा की यह यह पाषाण प्रीतिमा मिली जानकारी के अनुसार फिलहाल डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय के संग्रालय में रखी हुई है। इससे परवर्ती गुप्तकाल में गणेश पूजन का प्रमाण मिलता है।


उत्तरमुखी हनुमान मंदिर के पास गांव में अतिसुन्दर मध्यकालीन चतुर्भुजी गणेश मूर्ति योगासन में है। यह 12-13 वीं शताब्दी में बनाई गई है। गले में दो रुद्राक्ष मालाएं और जनेऊ है। इनके ऊपरी बांए हाथ में अंकुश, दांए में परशु है। नीचे के बाएं हाथ में अक्षमाला और दाएं में ली वस्तु अस्पष्ट है। भुजाओं में बाजुबंद, हाथों में कड़ा, उदर लंबा सूर्पकर्ण हैं। लंगोट लगाएं हैं। इनकी सूंड भी बांयी ओर मुड़ी है। मूर्ति की ऊंचाई ढाई फीट है।
शिल्पशास्त्री इसे तांत्रिक गणेश प्रीतिमा कहते हैं। बांयी ओर सूंड हो तो तांत्रिक गणेश और दांयी ओर हो तो सिद्ध गणेश कहलाते हैं।

 

गांव में संकट हरण मंदिर के पास 14-15 वीं सदी में निर्मित स्थानक(खड़ी मुद्रा) गणेश की चतुर्भुजी मूर्ति एक शिला पर बनी है। इसमें गणेश जी नृत्य मुद्रा में हैं। एक हाथ में परशु, एक कमर पर और एक से लड्डू खा रहे। बड़े-बड़े कान बने हैं। मुकुट अलंकृत है। पीताम्बर डाले हुए हैं। इसके अलावा मध्यकालीन सदी के अधिकांश सती स्तंभों में अभिलेखों की शुरुआत श्री गणेशाय नमः से की गई है। इस काल में भी गणेश जी प्रथम पूज्य ही रहे।

सत्रहवीं सदी के ध्यानमुद्रा गणेश
गांव के रामजानकी मंदिर में चतुर्भुजी ध्यानमुद्रा की गणेश प्रतिमा है। चार फीट ऊंची और तीन फीट चौड़ी प्रतिमा ध्यानमुद्रा में है। ऊपरी दोनों  हाथों में क्रमशः अंकुश और परशु है। नीचे दोनों हाथों में लड्डू है और नीचे चूहा बैठा है। इसका निर्माण 16-17 वीं सदी में हुआ है।

 

प्राचीन समय में चली आ रही कलाकारी का दौर सायद अब थम चुका है। सायद अब कोई मूर्तिकार नहीं जो गुप्तकाल से चली आ रही रीति को आगे बढ़ा सके। पीढ़ियों से गांव में रहे लोग बताते हैं कि हम भाग्यशाली हैं जो हमें प्राचीन सिद्ध प्रतिमाओं के रोज दर्शन और पूजा करने का सौभाग्य मिलता है। पुराने लोगों के साथ ही ऐरण की मूर्तिकला लुप्त हो गई। अब तो मूर्तिकार घर-घर मिट्टी के गणेश दे जाते हैं। गोबर गणेश भी बनाकर पूजते हैं।

 

हर मूर्ति पर कालखंड या अभिलेख नहीं मिलते। फिर भी मूर्तियों का कालखंड हमने बताया है। इसके लिए हमने ऐरण पर पीएचडी करने और एक दर्जन से अधिक ऐतिहासिक किताबें लिखने वाले डॉक्टर मोहनलाल चढ़ार का सहयोग लिया है। उनके मुताबिक गुप्तकाल में कलाकारी अपने चरमोत्कर्ष पर थी। इसके बाद कलाकारी लगातार कमजोर होती गई। इसी को देखकर हम मूर्तियों के निर्माण का समय तय करते हैं। गणेश प्रतिमाओं में भी यह स्प्ष्ट दिखाई देता है।
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अगर आप सोच रहे हैं कि दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति ऐरण में या भारत में कहीं होगी तो आप गलत भी हो सकते हैं। सबसे बड़ी 39 मीटर की कांसे से निर्मित गणेश प्रतिमा थाईलैंड के ख्लांग ख्वेन शहर में मौजूद है। 2012 में 854 कांसे के टुकड़ों को जोड़कर बनाई गई है। यहां एक गणेश इंटरनेशल पार्क भी बनाया गया है।

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